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पवित्र ‘‘गीता’’ सभी को कर्तव्य एवं न्याय के मार्ग पर चलने की सीख देती है

पवित्र ‘‘गीता’’ सभी को कर्तव्य एवं न्याय के मार्ग पर चलने की सीख देती है

लेख - डॉ. जगदीश गांधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक, 

सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ

(1) पवित्र ‘‘गीता’’ हमें कर्तव्य एवं न्याय के मार्ग पर चलने की सीख देती है:-

श्रावण कृष्ण अष्टमी पर जन्माष्टमी का पावन त्यौहार बड़ी ही श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है। आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा की जेल में हुआ था। कर्षति आकर्षति इति कृष्णः। अर्थात श्रीकृष्ण वह है जो अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। श्रीकृष्ण सबको अपनी ओर आकर्षित कर सबके मन, बुद्धि व अहंकार का नाश करते हैं। भारतवर्ष में इस महान पर्व का आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक दोनों तरह का विशिष्ट महत्व है। यह त्योहार हमें आध्यात्मिक एवं लौकिक संदेश देता है। आस्थावान लोग इस दिन घर तथा पूजा स्थलों की साफ-सफाई, बाल कृष्ण की मनमोहक झांकियों का प्रदर्शन तथा सजावट करके बड़े ही प्रेम व श्रद्धा से आधी रात के समय तक व्रत रखते हैं। श्रीकृष्ण के आधी रात्रि में जन्म के समय पवित्र गीता का गुणगान तथा स्तुति करके अपना व्रत खोलते हैं तथा पवित्र गीता की शिक्षाआंे पर चलने का संकल्प करते हैं। साथ ही यह पर्व हर वर्ष नई प्रेरणा, नए उत्साह और नए-नए संकल्पों के लिए हमारा मार्ग प्रशस्त करता है। हमारा कर्तव्य है कि हम जन्माष्टमी के पवित्र दिन श्रीकृष्ण के चारित्रिक गुणों को तथा पवित्र गीता की शिक्षाओं को ग्रहण करने का व्रत लें और अपने जीवन को सार्थक बनाएँं। यह पर्व हमें अपनी नौकरी या व्यवसाय को समाज हित की पवित्र भावना के साथ अपने निर्धारित कर्तव्यों-दायित्वों का पालन करने तथा न्यायपूर्ण जीवन जीते हुए न्यायपूर्ण समाज के निर्माण की सीख देता है। 

(2) ‘कृष्ण’ को कोई भी शक्ति प्रभु का कार्य करने से रोक नहीं सकी:-

कृष्ण के जन्म के पहले ही उनके मामा कंस ने उनके माता-पिता को जेल में डाल दिया था। राजा कंस ने उनके सात भाईयों को पैदा होते ही मार दिया। कंस के घोर अन्याय का कृष्ण को बचपन से ही सामना करना पड़ा। कृष्ण ने बचपन में ही ईश्वर को पहचान लिया और उनमें अपार ईश्वरीय ज्ञान व ईश्वरीय शक्ति आ गई और उन्होंने बाल्यावस्था में ही कंस का अंत किया। इसके साथ ही उन्होंने कौरवों के अन्याय को खत्म करके धरती पर न्याय की स्थापना के लिए महाभारत के युद्ध की रचना की। बचपन से लेकर ही कृष्ण का सारा जीवन संघर्षमय रहा किन्तु धरती और आकाश की कोई भी शक्ति उन्हें प्रभु के कार्य के रूप में न्याय आधारित साम्राज्य धरती पर स्थापित करने से नहीं रोक सकी। परमात्मा ने कृष्ण के मुँह का उपयोग करके न्याय का सन्देश पवित्र गीता के द्वारा सारी मानव जाति को दिया। परमात्मा ने स्वयं कृष्ण की आत्मा में पवित्र गीता का ज्ञान अर्जुन के अज्ञान को दूर करने के लिए भेजा। इसलिए पवित्र गीता को कृष्णोवाच नहीं भगवानोवाच अर्थात कृष्ण की वाणी नहीं वरन् भगवान की वाणी कहा जाता है। हमें भी कृष्ण की तरह अपनी इच्छा नहीं वरन् प्रभु की इच्छा और प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए प्रभु का कार्य करना चाहिए।   

(3) सारी सृष्टि की भलाई ही हमारा धर्म है:-

भगवान श्रीकृष्ण से उनके शिष्य अर्जुन ने पूछा कि प्रभु! आपका धर्म क्या है? भगवान श्रीकृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को बताया कि मैं सारी सृष्टि का सृजनहार हूँ। इसलिए मैं सारी सृष्टि से एवं सृष्टि के सभी प्राणी मात्र से बिना किसी भेदभाव के प्रेम करता हूँ। इस प्रकार मेरा धर्म अर्थात कर्तव्य सारी सृष्टि तथा इसमें रहने वाली मानव जाति की भलाई करना है। इसके बाद अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि भगवन् मेरा धर्म क्या है? भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तुम मेरी आत्मा के पुत्र हो। इसलिए मेरा जो धर्म अर्थात कर्तव्य है वही तुम्हारा धर्म अर्थात कर्तव्य है। अतः सारी मानव जाति की भलाई करना ही तुम्हारा भी धर्म अर्थात् कर्तव्य है। भगवान श्रीकृष्ण ने बताया कि इस प्रकार तेरा और मेरा दोनों का धर्म अर्थात् कर्तव्य सारी सृष्टि की भलाई करना ही है। यह सारी धरती अपनी है तथा इसमें रहने वाली समस्त मानव जाति एक विश्व परिवार है। इस प्रकार यह सृष्टि पूरी की पूरी अपनी है परायी नहीं है।

(5) ‘अर्जुन’ के मोह का नाश प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचान लेने से हुआ:-

कृष्ण के मुँह से निकले परमात्मा के पवित्र गीता के सन्देश से महाभारत युद्ध से पलायन कर रहे अर्जुन को ज्ञान हुआ कि कर्तव्य ही धर्म है। न्याय के लिए युद्ध करना ही उसका परम कर्तव्य है। उस समय राजा ही जनता के दुःख-दर्द को सुनकर न्याय करते थे। कोई कोर्ट या कचहरी उस समय नहीं थी। जब राजा स्वयं ही अन्याय करने लगे तब न्याय कौन करेगा? न्याय की स्थापना के लिए युद्ध के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं बचा था। भगवानोवाच पवित्र गीता के ज्ञान को एकाग्रता से सुनने के बाद अर्जुन हाथ जोड़कर बोला प्रभु अब मेरे मोह का नाश हो गया है और मुझे ईश्वरीय ज्ञान एवं मार्गदर्शन मिल गया है। अब मैं निश्चित भाव से युद्ध करूँगा। अर्जुन ने विचार किया कि जो परमात्मा की बनायी सृष्टि को कमजोर करेंगे वे मेरे अपने कैसे हो सकते हैं? पवित्र गीता के ज्ञान को जानकर उसने निर्णय लिया कि न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना चाहिए। फिर अर्जुन ने अन्याय के पक्ष में खड़े अपने ही कुल के सभी अन्यायी यौद्धाओं तथा 11 अक्षौहणी सेना का महाभारत का युद्ध करके विनाश किया। इस प्रकार अर्जुन ने धरती पर प्रभु का कार्य करते हुए धरती पर न्याय के साम्राज्य की स्थापना की। 

(6) ‘माता देवकी’ ने प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचान लिया:-

कृष्ण की माता देवकी ने प्रभु की इच्छा तथा आज्ञा को पहचान लिया और वह एक महान नारी बन गईं तथा उनका सगा भाई कंस ईश्वर को न पहचानने के कारण महापापी बना। देवकी ने अपनी आंखों के सामने एक-एक करके अपने सात नवजात शिशुओं की हत्या अपने सगे भाई कंस के हाथों होते देखी और अपनी इस हृदयविदारक पीड़ा को प्रभु कृपा की आस में चुपचाप सहन करती रही। देवकी ने अत्यन्त धैर्यपूर्वक अपने आंठवे पुत्र कृष्ण के अपनी कोख से उत्पन्न होने की प्रतीक्षा की ताकि मानव उद्धारक कृष्ण का इस धरती पर अवतरण हो सके तथा वह धरती को अपने भाई कंस जैसे महापापी के आतंक से मुक्त करा सके तथा धरती पर न्याय आधारित ईश्वरीय साम्राज्य की स्थापना हो।

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