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एक कस्बा देवां शरीफ सदियों से मजहबी एकता की बागडोर सम्भाले है


एक कस्बा देवां शरीफ सदियों से मजहबी एकता की बागडोर सम्भाले है


नफ़रतों के इस दौर में कौमी एकता का दयार, जहां “हिंदू  और मुसलमान ” में कोई फ़र्क नहीं


सावी न्यूज़ । पीर-फकीरों की दरगाहें मुल्क को कौमी एकता के सूत्र में पिरोने का काम कर रहीं हैं। हिन्दुस्तान की सरजमीं पर कदम-कदम पर इंसानियत का पैगाम देती दरगाहें हैं। ऐसी ही एक दरगाह हाजी वारिस अली शाह की है।


जिस दौर में सियासत ने दिलों में नफरत भरने का काम किया, ऐसे दौर में देवां शरीफ स्थित वारिस अली शाह की मजार पर एक अलग ही नजारा देखने को मिलता है। मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा-गिरजाघर में जाने वाले लोग यहां एक ही छत के नीचे हाथ फैलाए दुआ मांगते दिखते हैं। गंगा जमुनी तहजीब की जीती जागती मिसाल है यह दरगाह। सदियों पहले हिन्द की धरती पर जन्म लेने वाले वारिस अली शाह को उनके चाहने वाले वारिस पाक के नाम से पुकारते हैं। वारिस अली शाह ने 'जो रब है वही राम है' का संदेश देकर कौमी एकता की अलख जगाई थी।


राजधानी लखनऊ से करीब 30 किमी की दूरी पर स्थित बाराबंकी जिले का एक कस्बा देवां शरीफ सदियों से मजहबी एकता की बागडोर सम्भाले है। लखनऊ के रास्ते होकर देवां शरीफ पहुंचते ही दरगाह जाने के लिए सबसे पहले 'कौमी एकता द्वार' से गुजरेंगे तो लगेगा कि जैसे आप जाति-धर्म को पीछे छोड़ आए हैं। इस द्वार से दरगाह की दूरी लगभग सौ मीटर है। इस बीच जायकेदार हलवा, पराठा, सुगन्धित लोबान, सुरमा और तमाम-तरह के सामनों से सजी दुकानें देखने को मिलती हैं। दरगाह के करीब पहुंचते ही गुलाब की खुशबू और चादरों की चमक श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। जियारत करने आए लोग इन दुकानों से चादर, फूल, मिठाई लेकर दरगाह में प्रवेश करते हैं। दरगाह में घुसते ही एक अलग तरह की रूहानियत का एहसास होता है। इस दरगाह में जियारत करने आए लोग अपनी मन्नत मांगने बहुत दूर-दूर से यहां आते हैं।


कहा जाता है कि वारिस अली शाह के मानने वाले जितने मुस्लिम थे उतने ही हिन्दू भी थे। वारिस पाक सारी जिंदगी इस्लाम के तौर-तरीके से जिये, लेकिन उनका कहना था कि भले ही आप किसी मजहब में आस्था रखो लेकिन साथ ही दूसरे मजहबों को भी पूरा सम्मान दो। उनके मुरीद हिन्दू-मुस्लिम सभी थे। होली के मौके पर उनके चाहने वाले उनके पास रंग लेकर जाते थे। वे उन रंगों को अपने पास रख लेते और त्योहार की मुबारकबाद देते। 1905 ईसवी के करीब उन्होंने शरीर त्याग दिया। तबसे लेकर आज तक होली के हर मौके पर इस दरगाह में होली खेली जाती है। पहले रंगों की बजाय फूलों की होली खेली जाती थी। बताते हैं कि होली के मौके पर पूरे देश से लोग यहाँ आते हैं।


वारिस पाक जन्म से ही बहुत बुद्धिमान थे। बचपन में उनको प्यार से मिट्ठन मियां भी कहा जाता था। मिट्ठन मियां ने सात साल की उम्र में ही पूरा कुरान याद कर लिया यानी हाफिजे कुरान हो गए। इनका अधिकतर समय इबादत में गुजरता। कभी कभी ये कई दिनों तक इबादत के लिए जंगल चले जाते। वारिस पाक ने दुनिया के बहुत सारे देशों की यात्रा कीं। ये हमेशा नंगे पैर चलते थे। कहा जाता है कि इनके पैर में कभी धूल नहीं लगती। इनके गुरु खादिम अली शाह थे। इनकी मजार लखनऊ के क्रिश्चियन कॉलेज परिसर में बनी हुई है। खादिम अली शाह की मौत के बाद बुजुर्गों ने राय-मशविरा करके वारिस अली शाह को पगड़ी बांध दी, जिसके बाद से इन्होंने लोगों को अपना शिष्य बनाना शुरू किया। इनका शिष्य बनने के लिए किसी मजहब की सीमाएं नहीं थीं। अपने शिष्यों को ये इंसानियत का पाठ पढ़ाते। इन्होंने कहा कि इस सृष्टि को चलाने वाला सिर्फ एक ही है तो फिर आपस में भेदभाव कैसा। इस दरगाह पर नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी, अटल बिहारी बाजपेयी जैसी राजनीतिक हस्तियां भी चादर चढ़ाने आती रहीं हैं।


माना जाता है कि इस मजार पर मत्था टेकने से सभी मुरादें पूरी होती है। मत्था टेकने और चादर चढाने के बाद मज़ार के बाहर बने चबूतरे पर मन्नत मांग धागा बांधा जाता है। हाजी वारिस अली शाह की याद में हर साल बहुत ही भव्य मेले का आयोजन होता है जिसमें देश-विदेश से श्रद्धालु आते हैं। इस मेले का मुख्य आकर्षण दरगाह पर चादर चढ़ाना होता है। बनारसी सिल्क की चादर को वारिस पाक तथा उनके पिता हाजी कुर्बान अली शाह की मजार पर चढ़ाया जाता है। इस दौरान होने वाली कव्वाली दरगाह में जियारत करने आए लोगों को रूहानी सुकून देती हैं।


तीस हजार से ज्यादा की आबादी वाले कस्बा देवां में सभी मजहब के लोग आपसी प्यार और भाईचारे से रहते हैं। कहा जाता है कि हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही धर्मों के लोगों ने इस दरगाह के निर्माण में अहम भूमिका अदा की। आज तक इस कस्बे में कभी भी किसी तरह का सम्प्रदायिक तनाव देखने को नहीं मिला। भले ही सियासत दिलों में नफरत फैलाने का लाख जतन कर ले, लेकिन इस देश में वारिस पाक जैसी हस्ती ऐसे लोगों को कभी कामयाब नहीं होने देती। यहाँ अपने नाम के आगे वारसी लगाने वालों में हिन्दू भी हैं और मुस्लिम भी। यही वजह है कि यहाँ उन्माद फैलाकर सियासी रोटियां सेंकने वालों की एक नहीं चलती


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